पैसा आपके पीछे भागेगा, अगर ……

महावीर सांगलीकर

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आज का युग उपलब्धियों का युग कहलाता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि उपलब्धि की परिभाषा को हमने लगभग पूरी तरह पैसे तक सीमित कर दिया है. आज किसी व्यक्ति से मिलने पर पहला प्रश्न यही होता है—“क्या करते हो?” और उसका वास्तविक अर्थ होता है—“कितना कमाते हो?”. मानो मनुष्य का मूल्य उसके वेतन पर्ची से तय हो रहा हो.

बचपन से ही हमें यही सिखाया जाता है कि अच्छा पढ़ो ताकि अच्छी नौकरी मिले, और अच्छी नौकरी इसलिए ताकि ज़्यादा पैसा मिले. इस पूरी शिक्षा-संस्कृति में काम का महत्व गौण हो जाता है और पैसा केंद्र में आ जाता है. परिणामस्वरूप पैसा साधन न रहकर जीवन का उद्देश्य बन जाता है. यहीं से जीवन की असंतुलन यात्रा शुरू होती है.

पैसों के लिए काम मत करो, काम के कारण पैसा आने दो

वास्तविकता यह है कि पैसा कमाने के लिए काम नहीं करना चाहिए. पैसा काम का बाय प्रोडक्ट होना चाहिए. जैसे फूल का उद्देश्य खुशबू फैलाना है, न कि मधुमक्खी को बुलाना. मधुमक्खी तो अपने आप आती है.

लेखक व विचारक अशोका ऊ सालेचा कहते हैं ,
“जिस काम मे हमारा मन लगता है, जिस काम से हमे आनंद की प्राप्ति होती वह काम शुरू करना चाहिए. एक दिन उस काम में हम इतने माहिर हो जायेंगे कि उस कार्य को हम बेहतर ढंग से कर सकेंगे. फ़िर उस काम की कदर करने वाले हमारे पास खुद आयेगे.

जब कोई व्यक्ति अपने काम को सही ढंग से, पूरी निष्ठा से और पूरे मन से करता है, तब उसका काम अपने आप मूल्यवान बन जाता है. और जहां मूल्य होता है, वहां पैसा अपने आप पहुंचता है. यह प्रकृति का नियम है, बाजार की चाल नहीं.

जो व्यक्ति केवल पैसे के लिए काम करता है, वह हमेशा तनाव में रहता है. लेकिन जो व्यक्ति काम के लिए काम करता है, उसके लिए पैसा एक स्वाभाविक परिणाम बन जाता है, बोझ नहीं.

काम करने का आनंद और काम के प्रति वफादारी

वफादारी का अर्थ

काम के प्रति वफादारी का अर्थ है, जो काम आप कर रहे हैं, वह प्रामाणिकता से, पूरा ध्यान लगाकर, आनंद लेते हुए, बिना छल, बिना दिखावे और बिना दोहरेपन के करना, जो वादा करें, वही देना, या उससे ज्यादा देना, आप जो जिम्मेदारी लें, उसे पूरी ईमानदारी से निभाना.

प्रामाणिक व्यक्ति अपने काम में कोई मुखौटा नहीं पहनता. वह ग्राहकों, सहकर्मियों और समाज से झूठा संबंध नहीं बनाता. उसका काम उसकी पहचान बन जाता है.

आनंद का अर्थ

काम करते समय काम से भीतर से जुड़ाव महसूस होना चाहिए , काम को बोझ न समझे, बल्कि चुनौती समझे. .
काम खत्म करने के बाद थकान महसूस नहीं होनी चाहिए, और ना ही छुटकारे की भावना होनी चाहिए, बल्कि काम को पूरा करने का आनंद होना चाहिए, जैसे एक खिलाड़ी को जीतने आनंद होता है.

जो व्यक्ति केवल मजबूरी, डर या सामाजिक दबाव में काम करता है, वह कभी भी श्रेष्ठ परिणाम नहीं दे सकता. आनंद काम को जीवंत बनाता है.

गुणवत्ता: पैसा और सम्मान दोनों का स्रोत

जब कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट काम को पूरे मन से करता है, उसमें डूब जाता है और उसे हर दिन थोड़ा बेहतर बनाने की कोशिश करता है, तब उसका काम साधारण नहीं रहता. उसमें गुणवत्ता आ जाती है.

गुणवत्ता वह अदृश्य शक्ति है जो, ग्राहक को बार-बार लौटने पर मजबूर करती है, विश्वास पैदा करती है, सम्मान और पहचान दिलाती है और स्थायी धन प्रवाह सुनिश्चित करती है. पैसा गुणवत्ता के पीछे भागता है, गुणवत्ता पैसे के पीछे नहीं.

जब पैसा लक्ष्य बन जाता है, तब गिरावट शुरू होती है

इसके विपरीत, जब पैसा ही मुख्य लक्ष्य बन जाता है, तब व्यक्ति जल्दबाज़ी करने लगता है. वह शॉर्टकट खोजता है, नियमों को बोझ समझता है और नैतिकता को बाधा मानने लगता है.

शुरुआत में कभी-कभी सफलता मिल भी जाती है, क्योंकि बाज़ार में दिखावा और चतुराई कुछ समय तक चल सकती है. लेकिन यह सफलता खोखली होती है. आखिरकार गुणवत्ता गिरती है, भरोसा टूटता है और पैसा भी साथ छोड़ देता है.

शिक्षक का उदाहरण

एक शिक्षक यदि केवल तनख्वाह के लिए पढ़ाता है, तो वह बस पाठ्यक्रम पूरा करेगा. न बच्चों से भावनात्मक जुड़ाव होगा, न उनके सवालों में रुचि. ऐसे शिक्षक के लिए कक्षा एक औपचारिकता बन जाती है. वह शिक्षक नौकरी तो करता रहेगा, लेकिन छात्र उसे भूल जाएंगे. समाज उसे केवल कर्मचारी मानेगा, और वह स्वयं भीतर से सूखता चला जाएगा.

इसके विपरीत, जो शिक्षक पढ़ाने में आनंद लेता है वह बच्चों की जिज्ञासा को समझता है, नए तरीकों से समझाने की कोशिश करता है और स्वयं भी लगातार सीखता रहता है. वही शिक्षक समय के साथ प्रेरणा बन जाता है. उसके छात्र सफल होते हैं, उसका नाम फैलता है, उसे बेहतर अवसर मिलते हैं. पैसा उसके काम का स्वाभाविक परिणाम बन जाता है, लक्ष्य नहीं.

व्यापारी, कारीगर और उद्यमी

केवल मुनाफे पर केंद्रित व्यापारी अक्सर गुणवत्ता से समझौता करता है. ग्राहक को भ्रमित करता है और अल्पकालिक सोच अपनाता है. ऐसा व्यापार कुछ समय चल सकता है, लेकिन स्थायी नहीं होता.

इसके विपरीत, जो कारीगर या उद्यमी अपने उत्पाद से भावनात्मक जुड़ाव रखता है, हर ग्राहक को सम्मान देता है औरईमानदारी से मूल्य तय करता है, वही धीरे-धीरे ब्रांड बनता है. आज कई छोटे-छोटे उद्यम इसी सोच से वैश्विक पहचान बना चुके हैं.

काम के प्रति अवफादारी और भ्रष्टाचार की जड़

जब पैसा ही सर्वोच्च लक्ष्य बन जाता है, तब व्यक्ति काम के प्रति वफादार नहीं रह पाता. वह काम को सेवा नहीं, अवसर मानने लगता है. यहीं से जन्म लेती हैं रिश्वत, मिलावट, अनैतिक प्रतिस्पर्धा और संस्थागत भ्रष्टाचार.

जब एक डॉक्टर मरीज की ओर उसकी बीमारी क्या है और उसे कैसे ठीक करना है इस दृष्टी से देखने के बजाय उस मरीज से कितना पैसा निकाला जा सकता है यह सोचने लगे, जब एक सरकारी बाबू अपना काम प्रमाणिकता से करने के बजाय ऊपरी कमाई के बारे में सोचने लगे, जब एक शिक्षक स्कूल में ठीक से नहीं पढाये और बाहर ट्यूशन लेने लग जाए और स्कुल के छात्रों को ट्यूशन के लिए मजबूर करें, जब एक दुकानदार मिलावट आदि करें, तो समझ लेना कि उनके लिए काम महत्वपूर्ण नहीं है, और वह सिर्फ पैसों के लिए ही काम करने लगे हैं.

पैसा आवश्यक है, लेकिन उद्देश्य नहीं

यह स्पष्ट समझना आवश्यक है कि पैसा गलत नहीं है. पैसा आवश्यक है जीवन की सुविधाओं, सुरक्षा और स्वतंत्रता के लिए. लेकिन पैसा जीवन का अर्थ नहीं दे सकता. आनंद उस काम से मिलता है जिससे आप जुड़ाव महसूस करें, और जिसे करते समय आप उसमे खो जाए.

पैसा एक बाय प्रोडक्ट है, एक साधन है, साध्य नहीं, और पैसा जब साध्य बनता है, तब सारा गड़बड़-घोटाला शुरू हो जाता है, इस बात को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए.

सोच बदलने की आवश्यकता

आज आवश्यकता है सोच बदलने की. जब आपके पास कोई काम आता है तब यह नहीं सोचना चाहिए कि “इससे कितना पैसा मिलेगा?” बल्कि यह सोचना चाहिए कि “अरे, यह काम करने में तो मजा आएगा, इसे मैं आसानी से और परफेक्शन से कर सकता हूं”. कोई मुश्किल काम आ जाये तो इसे एक चॅलेंज समझ कर करना चाहिए.

सच्चा, आनंदपूर्ण और प्रामाणिक काम ही स्थायी समृद्धि का आधार है. पैसा उसका परिणाम है, उद्देश्य नहीं.

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महावीर सांगलीकर एक सिनिअर न्यूमरॉलॉजिस्ट, मोटिवेटर, लेखक और प्रकाशक है.

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