हिंदी कहानी : मैंने प्यार किया

संजय सोनवनी

Hindi Short Story | मैंने प्यार किया | एक हिंदी प्रेम कहानी

1979 की बात है. मैं एफ.वाई.बी. कॉम में था. डॉ. अशोक वैद्यजी के यहां कंपाउंडर के रूप में काम करता था. नियमित कॉलेज कभी नहीं जाता था, सिर्फ सेमिनार और परीक्षाओं के लिए जाता था. पाबळ (वही मस्तानी की) में रहता था.

कॉलेज राजगुरुनगर में था. एसटी का पास 40 रुपये का मिलता था. उतने पैसे होते ही नहीं थे, इसलिए एसटी से जाना कभी संभव नहीं हुआ. सेमिनार और परीक्षा के लिए ट्रक से जाता था.

मैंने प्यार किया

डॉ. अशोक वैद्यजी के एक मित्र थे पुणे में, कलतारसिंगजी पंजाबी. वैद्यजी के साथ एक बार पुणे आया. कलतारसिंगजी के घर गया. वहां मेरी मुलाकात हुई पुष्पा पंजाबी से. वह कलतारसिंगजी  की बेटी थी. उसका नौवीं का रिजल्ट आया था. उत्साह से दिखा रही थी. मैं उसके प्यार में प्यार में पड़ गया.

मैंने कभी प्यार व्यक्त नहीं किया. लेकिन डायरी लिखने लगा. पुणे अकेले आना संभव नहीं था. पैसे कहां थे मेरे पास? कभी गया तो वैद्यजी के साथ ही जाता था.

मैं और पुष्पा बहुत सारी बातें करते थे. उस समय मैं कई रूसी उपन्यास पढ़ रहा था, इसलिए इम्प्रेशन मारने के लिए टॉलस्टॉय से शोलोखोव तक की ज्यादा बातें करता था. मेरे कपडे पैजामा और छपरी शर्ट होते थे. (उस शर्ट की भी एक अलग कहानी है.)

इंसान अपनी कमी को किसी और तरीके से पूरा करने की कोशिश करता है… मैंने अपनी बुद्धिमत्ता दिखाने की कोशिश की.

वह दसवीं पास हो गई. उसे ग्यारहवीं में प्रवेश दिलाने के लिए मैंने कई कॉलेजों के फॉर्म्स लाइन में खड़े होकर लाये. कोशिश सेंट मीरा’ज में एडमिशन की थी. और नंबर लग गया सेंट मीरा’ज में. क्योंकि वह सिर्फ लड़कियों का स्कूल-कॉलेज वगैरह था.

Hindi Short Story

अभी तक उसे नहीं पता था कि मैं उससे प्यार करता हूं. मुझमें उसे बताने की हिम्मत नहीं थी.

सालों साल गुजरते गए. मैं एम.कॉम. करने पुणे आया. पहले एक मराठी, फिर एक हिंदी समाचार पत्र में काम करते हुए पढ़ाई कर रहा था. वेतन था डेढ़ सौ रुपये. तब खानावळ (भोजनालय) महीने की 250 से 300 रुपये की होती थी. खानावळ में रोज एक वक्त की ही जाता था.

शनिवार वाडे के पास शिक्षकों के बच्चों के लिए बने हॉस्टल में महीने का 5 रुपये किराए का देकर रहता था. बाद में समाचार पत्र के कार्यालय में ही रहता था.

डॉ. वैद्यजी पाबळ में ही छूट गए थे, इसलिए पुष्पा के घर जाने का कोई बहाना नहीं था. अपने दोस्तों को परेशान करके हुए मैं उसके बिल्डिंग के नीचे घंटों खड़ा रहता था, इस उम्मीद में कि वह दिखेगी.

मैं पुष्पा के घर गया…

लेकिन एक बार उसके घर जाने का मौका मिला. उस दिन मेरे हाथ में मेरी डायरी थी. पुष्पा घर पर थी. उसकी मम्मी भी थी. वह बातें कर रहे थे. पुष्पा ने अचानक मुझसे मेरी डायरी मांगी. मैंने नहीं दी. उसने ले ही ली. दो-चार पन्ने पलटे. मैं बहुत डर गया था. वहां से कब निकलू ऐसा हो गया था. सोचा अब चप्पल की मार पड़ेगी. इस घर का आज का आखिरी दिन और यह पुष्पा का आखिरी दर्शन.

उसका चेहरा गंभीर हो गया. उसने डायरी मेरे हाथ में दी.

“तुझसे ये उम्मीद नहीं थी…” उसने कहा.
मैं ठंडा पड़ गया था. “चलता हूं …” कहकर वहां से निकल गया.

अब उसे पता चल गया था कि मेरे मन में क्या है. मेरी आर्थिक स्थिति तो दरिद्र थी. लेकिन कहते हैं… दिल है कि मानता नहीं.

मैं उसे कॉलेज के बाहर मिलने की कोशिश करता… तब वह मुझे देख कर ऐसे नजरें फेर लेती जैसे कोई तुच्छ जीव हो.

उसकी सहेलियों को मुझ पर दया आती थी. मेरी निष्ठा देखकर एक सहेली ने कहा, “ऐसा प्रेमी मुझे चाहिए था.” (कौन सी फिल्म देखकर आई थी कौन जाने!). वह मेरे लायक नहीं थी, लेकिन मैंने उसे ही अपना पोस्टवुमन बना लिया. अपने लंबे प्रेम पत्र उस सहेली के माध्यम से पुष्प को भेजता था. लेकिन पुष्पा से जवाब कभी नहीं आया.

पुष्पा के जन्मदिन पर मैंने एक बार कॉलेज के पते पर टेलिग्राम भेज दिया था. पुष्पा की टीचर ने उसे बहुत डांटा. यह बात मुझे बाद में मालुम हो गयी.

मामला सुलझ नहीं रहा था, उल्टा बिगड़ रहा था.

कहानी में ट्विस्ट…

सात साल बीत गए. तब तक मेरी कुछ किताबें भी प्रकाशित हो चुकी थीं. मैंने धड़कते दिल से उसकी सहेली के माध्यम से उसे भेजी भी थीं. लेकिन पुष्पा को उससे क्या?

लेकिन 1986 साल आया. मेरा प्री-थीसिस इंग्लंड के एक विश्वविद्यालय ने स्वीकार किया और मुझे एशिया के धर्मों पर तुलनात्मक अध्ययन के लिए आमंत्रित किया गया.

मेरा दिल तो इधर था. मैंने पुष्पा को आखिरी पत्र लिखा. “अब तो हां कह दो… नहीं तो मैं इंग्लंड जा रहा हूं …”

और क्या चमत्कार… दूसरे दिन ही मुझे जवाब मिला. पहला जवाब!

मैंने इंग्लंड का दौरा रद्द किया! पुष्पा मुझसे मिली. उसने दिल हाथ पर रखकर बात की. वह भावुक किस्म की लडकी नहीं थी. लेकिन उस दिन वह भी भावुक हो गयी थी. मैं अभी भी दरिद्र था. उसे भविष्य के सुनहरे सपने दिखाने की मेरी औकात नहीं थी.

Hindi love story: Maine pyar kiya

मैंने अपना व्यवसाय शुरू किया

फिर मैंने व्यवसाय में कदम रखा… विज्ञापन के व्यवसाय में. और पैसे की धारा मेरी तरफ बहने लगी. किराए की साइकिल से पुणे घूमने वाला मैं एम-50 का मालिक बन गया. फिर फियाट भी ली. (बाद में मेरे जीवन में सभी आधुनिक कारें आईं और गईं.)

एम्प्रेस गार्डन हमारी मुलाकात की जगह बन गई. हर सोमवार को हम मिलते. यह सोमवार इतना मशहूर हो गया कि अमिता नायडू ने “Waiting on Monday!” नामक उपन्यास लिखने की बात कही.

1989 साल आया. मैं पुष्पा को एम्प्रेस गार्डन से उसके घर के पास के कोने पर छोड़ने आया. कैसे पता नहीं कलतारसिंगजी ने हमें देख लिया. कुछ नहीं बोले. लेकिन घर जाकर अपनी बेटी पर आग बबूला हो गए. अगले दिन कलतारसिंगजी मेरे ऑफिस में रिक्शा से आए. मुझे डांटने के लिए वह शराब पीकर आये थे. लेकिन तब मैं तब मई एक मित्र के साथ फिल्म देखने गया था. बच गया.

लेकिन बाद में खबर मिली. मैं हतप्रभ सा रह गया.

मैंने हमारे एक सिनिअर पत्रकार दिनेश गंगावणे जी, जिनको मैं दादाजी कहता था, को सारी बातें बतायी. उन्होंने कहा, चलो! … हमने पुष्पा के घर पर धावा बोलने का निर्णय लिया. उसी शाम मैं और दादाजी उसके घर पहुंचे. कलतार सिंग ने मुझे देखा और तुरंत अपनी बेटी को थप्पड़ मारा.

बात करने की स्थिति नहीं थी. मैंने पुष्पा से कहा… “चल…”

मैंने प्यार किया

एक सेकंड में वो बाहर निकल आई. हम भी बाहर आ गए. दरवाजा बंद करके बाहर से कड़ी लगा दी. नीचे आए. दादाजी ने रिक्शा करवाई. सीधे गांव गए. मेरी मां ने हमें देखा. मां का दिल कोमल होता है. उसने हम दोनों को घर प्रवेश दिया. कुछ पूछताछ नहीं की. दादाजी भी घर में आए… पंचांग निकाला… कहा… परसों आळंदी जाकर शादी कर लेते हैं.

पुष्पा दिल कितना शांत हुआ मुझे नहीं पता… लेकिन मुझे तो स्वर्ग मिल गया था.

मेरे पास पैसे नहीं थे. पिंपरी में मेरे क्लाएंट थे, परमानंद झमतानी. उन्हें सारी बाते और परिस्थिति बताई. उन्होंने एक सेकंड में ड्रॉअर से 3,000 रुपये निकालकर दे दिए. वास्तव में, एक मराठी लड़का सिंधी लड़की से शादी कर रहा था, यह सुनकर उन्होंने, कुल मिलाकर जातीय/प्रांतवादी स्थिति देखकर मदद नहीं की होती तो भी बुरा नहीं लगता. लेकिन उन्होंने मदद की.

मेरी बहन की भी पिनाककांत दत्त के साथ लंबित शादी आळंदी में ही करने का निर्णय हो गया था.

हम घर के पांच-छह लोग और नियोजित दूल्हा-दुल्हन एक मालवाहक टेंपो में बैठकर-लटककर आळंदी पहुंचे. किसी मंदिर में हमारी शादी हुई. दो हज़ार रुपये खर्च आया. दो शादियों का, मतलब एक हजार रुपयों में एक शादी हो गयी. शाम को हम नए जीवन में जाने के लिए, नई चुनौतियां लेने के लिए तैयार हो गए.

ससुर (कलतार सिंगजी) बाद में पुष्पा को अपनी बेटी होने के बावजूद भी मिलने नहीं आए. लेकिन सास तो मां जैसी थी. वह बेटी से मिलने आया करती थी. ससुर से मेरी मुलाकात शादी के पंद्रह साल बाद हुई!

झमतानी को मैं 3000 रुपये वापस नहीं कर सका… मतलब उन्होंने लिए ही नहीं. उनका और मेरा जन्मदिन एक ही है. उनका फोन नहीं आया ऐसा एक भी जन्मदिन नहीं गया.

मैं यह क्यों बता रहा हूं ?

प्यार एक ताकत है. शादी में आप कितना खर्चा करते हैं इससे आपका प्यार या प्रतिष्ठा तय नहीं होती. प्रतिष्ठा नेक जीवन जी कर ही मिलती है. एक-दूसरे के हो कर ही मिलती है. शादी करने का मतलब है कि हम एक-दूसरे को वचन देते हैं… समाज के सामने! शादी की रस्म वैभव दिखाने के लिए नहीं है. वह निष्ठा और समर्पण दिखाने के लिए है!

मैंने रूढ़ सामाजिक संकेतों को ठुकरा दिया और प्रेम के अद्वितीय अनुभवों को जिया… लेकिन वह भी निष्ठा से…… सस्तेपन से नहीं.

शादी में आप कितना खर्चा करते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है… आपको प्यार कर सकते हैं क्या, आपको नि:स्वार्थ मन से जीना आता है क्या… यही असली सवाल है!

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