प्रो. अनेकान्त जैन
एक गुरु जी ने एक आध्यात्मिक गुरुकुल खोला. वे बहुत समर्पण के साथ अध्यापन कार्य करते थे. उनके शिष्य बहुत ज्ञानी होने लगे जिससे उनकी ख्याति भी देश-विदेश में फैलने लगी. सैकड़ों शिष्य रोजाना अध्ययन करते. गुरु जी दो समय प्रवचन भी करते, जिसमें हजारों आम श्रोता भी आते और ज्ञान प्राप्त करते.
एक दिन गुरु जी की आयु पूर्ण हो गयी. अपने एक शिष्य को गुरुकुल सौंप कर स्वर्ग सिधार गए.
वह प्रधान शिष्य गुरु जी द्वारा सीखे गए ज्ञान को वितरित करने लगा.
पर अब वैसा महौल नहीं रह गया. शिष्य भी गुरु जी को बहुत याद करते. एक दिन सभी ने निर्णय लिया कि गुरुकुल में गुरु जी की एक प्रतिमा स्थापित की जाए ताकि हम सभी साक्षात् उन्हें देखकर उनकी याद कर सकें और प्रेरित हो सकें. ऐसा ही हुआ.
कक्षाएं पूर्ववत् चलती रहीं. प्रतिमा बनी तो लोग उनपर अर्घ समर्पित करने लगे. एक शिष्य ने भक्ति पूर्ण पूजन लिख दी तो सभी प्रतिदिन प्रतिमा के समक्ष उस पूजन को पढ़ने लगे.
एक ने गुरु जी की याद में एक बहुत भावुक भजन और आरती लिख दी तो रोज शाम को उनकी प्रतिमा के समक्ष आरती और भजन होने लगे.
अब गुरुकुल में उतनी कक्षाएं नहीं चलती थीं. अधिकांश समय इसमें ही लगने लगा.
फिर भी शास्त्रों का अध्ययन अध्यापन चल रहा था.
समाज के लोग कक्षा में तो आते नहीं थे. हां, गुरु जी की याद करने कुछ प्रातः पूजन में और अधिकतर लोग शाम की आरती में आने लगे.
गुरुकुल के शिष्यों में कुछ का मन पढ़ने में कम और संगीत में ज्यादा लगता था, वे पूजन और भजन को अधिक रोचक बनाने लगे. गुरुकुल का खर्च बढ़ रहा था. समाज इन्हीं कार्यों में ज्यादा रुचि लेती और गुरु जी के नाम पर दान भी उसी समय देती. अतः गुरुकुल के अधिकांश लोग प्रातः गुरु जी की पूजन के साथ अभिषेक भी करने करवाने लगे. उससे संसार के दुख दूर होते हैं और धन संपत्ति की प्राप्ति होती है- यह बताने लगे.
शाम को आरती के बाद गुरु जी की जीवन कथा का विशेष आयोजन होने लगा. उसमें भी भक्त काफी संख्या में आने लगे. दान भी काफी आने लगा.
अब गुरुकुल बहुत सुविधा सम्पन्न हो गया. बहुत स्वादिष्ट भोजन मिलने लगा. सुंदर संगमरमर की इमारत खड़ी हो गयी.
अब वह गुरुकुल की जगह गुरु मंदिर के नाम से जाना जाने लगा.
अधिकांश शिष्य भी धनोपार्जन में व्यस्त हो गए.
फिर भी अभी भी कुछ शिष्य एक कमरे में गुरु जी के ज्ञान का, शास्त्रों का स्वाध्याय करते करवाते थे. कुछ रुचिवन्त पढ़ते भी थे. उन्हें यह इस तरह का विकास गुरु जी के सिद्धांतों के विरुद्ध लगता था. वे आये दिन अपने वक्तव्यों में उनकी मूर्ति की पूजा, अभिषेक की आलोचना भी करते और उनके ज्ञान को धारण करने में ही उनकी सच्ची भक्ति बतलाते.
धीरे धीरे वक्त बीतता गया. मात्र ज्ञान की चर्चा करने वालों को गुरु विरोधी माना जाने लगा. कुछ चालाक शिष्यों ने, जिन्हें आम जनता का समर्थन प्राप्त था ज्ञानी शिष्यों को धर्म विरोधी तक करार दिया और उस एक मात्र चल रही कक्षा को बंद करवा कर उन्हें बाहर कर दिया.
अब गुरु मंदिर में गुरु जी के लिखे शास्त्र अलमारियों में रखे अवश्य थे पर उसे न कोई खोलता न अध्ययन करता.
समय बीतता गया. गुरु मंदिर के चारों ओर पूजा पाठ की अनेक दुकानें खुल गईं, धर्म शालाएं बन गईं, वार्षिक मेले का आयोजन होने लगा.
करोड़ों का धन आने लगा. बहुत बड़ा मॅनेजमेंट बन गया. इतना पैसा आया कि संस्था ने मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज खोल डाले. संस्था के लोग बताते कि गुरु जी ज्ञान को बहुत महत्त्व देते थे, इसलिये हमने कॉलेज खोलकर उनकी इच्छा पूरी की है तथा समाज को ज्ञान दिया है.
गुरु जी के द्वारा लिखी गयी पुस्तकें अब पढ़ने में भी दुरूह होने लगीं. उसकी भाषा भी समझना कठिन हो गया. कोई अर्थ बताने वाला नहीं बचा. एक लकड़ी की आलमारी जिसे दीमक ने पीछे से खाना शुरू किया उसने उसमें रखे गुरु जी द्वारा लिखे शास्त्र भी खा लिए.
एक दिन उनका एक पुराना ज्ञानी शिष्य वहां आया और उसने कहा कि गुरु जी के शास्त्र सुरक्षित करो. वह कक्षा लेने लगा. प्रशासन को यह रास न आया. उन्हें लगा हम जो क्रिया कर रहे हैं, गुरु जी तो उसका निषेध करते थे. अगर यह सब सामने आया तो सब धंधा चौपट हो जाएगा.
उन्होंने उस ज्ञानी शिष्य पर उल्टे सीधे आरोप लगाए और बाहर कर दिया, और गुरु जी का साहित्य कभी कोई पढ़कर हम पर उंगली न उठाये यह सोच कर वह बचा हुआ साहित्य भी नष्ट कर दिया.
अब गुरु जी के गुरुकुल में सब कुछ हो रहा था उनका ज्ञान छोड़कर.